प्रिय पाहुन, नव अंशु मे अपनेक हार्दिक स्वागत अछि ।

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

दया

अझुका रचना- लघुकथा
3.16 दया

"जय जय सीताराम ।भगवान भला करताह ...यौ घरबारी बाबाकेँ किछु दियौ ।"साधु बाबाक स्वर सुनि मोहन घरसँ बहर एलै ।
"बाबा कत'सँ आबि रहल छी ।"मोहनक प्रश्न सुनि बाबा कने सोचमे पड़ि गेलाह ।एकटा नम्हर साँस छोड़ि कहलनि
"साधुक कोनो घरबार त' होइ नै छै ।कोन ठामक नाम कहब ।बस एते बुझू जे घुमन्तू छी ।"
"तैयो कतौ त' अहाँक अपन गाम हेतै !"
"हँ छलै, मुदा आब नै छै ।सब किछु खत्म भ' गेल ।"बाबाक मोन कने दुखित जकाँ भ' गेलै ।
"ओह !लागैए हम अनावश्यक गप शुरू क' देलौं ।ई कहु जे अहाँक की सेवा कएल जाए ।"
"किछु टाका-ताका द' दिअ ।पापी पेट जे ने कराबय ।"
"एकटा काज करू बाबा ...अहाँ हाथ-मुँह धो क' आउ भोजने क' लेल जाए कमसँ कम एक सप्ताह हमर आतिथ्य स्वीकार करू ।एहन कमजोर देह ल' कत' रौदमे बोआएब ?"
"जय सीताराम, भगवान अहाँकेँ औरदा दैथि बौआ ।अहाँ बड पैघ आदमी बनब ।अहाँकेँ धन-धान्यक अभाव नै रहत ।"
"से कोना कहि सकै छी ।ओ सब त' भगवानक हाथमे छै ।"
"हम अहाँक आतिथ्य देख कहि सकै छी जे अहाँक हृदय बड पैघ अछि ।अहाँकेँ बुढ़-बुजुर्गपर बड दया आबैत अछि ।जँ एकर दशांशो दया हमर बेटा सभकेँ रहितै त' आइ हम अहाँ ओहिठाम नै, अपन गाममे रहितौन ।" बाबाक आँखिसँ नोरक दू टा बुन्न बलुआह माँटिकेँ सिक्त क' देलकै ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें