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मंगलवार, 28 मई 2013

मेला

विहनि कथा-35
मेला

"चलू. . .चलू . . . सगरो गाम जा रहल छै . . .अहूँ चलू ।" कमला बाबू सत्तर वर्षक उमरिमे बीस वर्ष बला जोश देखबैत कहलनि " यौ रमेश जी, की सोचै छी? चलू ने, बड नीक मेला लागल छै ।"
रमेश बाबू लुंगी आ हाफ गंजीमे दलानक एकातमे बनाओल छोट-छीन उपवनमे टहलैत छलथि ।कमला बाबूक निमन्त्रण सूनि बाटपर आबि उपहास करैत कहलनि " अहीं जाउ, हम जा कऽ की करब? हमरा घरमे तँ सदिखन मेले रहैत अछि ।" फेर छाती छत्तीस इन्च फुलबैत बाजलनि "असली मेला तँ तखन छै जखन बेटा-पुतहु बिन झगड़ा-झाँटी केने एक छप्परक तऽर खुशी-खुशी जीबैत अछि । जा ! कोन बात पसारि देलौं, अहाँक बेटा तँ अहाँकें बारि कऽ अलग रहैत अछि ।अहाँ की बुझबै एहि मेलाक रस ।"
रमेश बाबूक जबाब सूनि कमला बाबू बिनु किछु बाजने घऽर घुरि गेलाह ।

अमित मिश्र

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